बंद कर के खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख
डूबती आँखों से अपने शहर का मंज़र न देख
Faiz Ahmad Faiz
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सूरज धीरे धीरे पिघला फिर तारों में ढलने लगा
समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा
हर नक़्श-ए-नवा लौट के जाने के लिए था
शाम आई सेहन-ए-जाँ में ख़ौफ़ का बिस्तर लगा
वो एक शोर सा ज़िंदाँ में रात-भर क्या था
बंद कर ले खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख
मैं ने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को
एक बेनाम-ओ-निशाँ रूह का पैकर हूँ मैं
कई रातों से बस इक शोर सा कुछ सर में रहता है
परछाइयों की बात न कर रंग-ए-हाल देख
इस तरह इश्क़ में बर्बाद नहीं रह सकते