निगाह नीची हुई है मेरी
ये टूटने की घड़ी है मेरी
पलट पलट कर जो देखता हूँ
कोई सदा अन-सुनी है मेरी
ये काम दोनों तरफ़ हुआ है
उसे भी आदत पड़ी है मेरी
तमाम चेहरों को एक कर के
अजीब सूरत बनी है मेरी
वहीं पे ले जाएगी ये मिट्टी
जहाँ सवारी खड़ी है मेरी
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फ़ैसले औरों के करता हूँ
नया यूँ है कि अन-देखा है सब कुछ
जो कहता है कि दरिया देख आया
वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है
हो सबब कुछ भी मिरे आँख बचाने का मगर
बड़ा है दुख सो हासिल है ये आसानी मुझे
मंज़िलों पर हम मिलें ये तय हुआ
यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे
अचानक भीड़ का ख़ामोश हो जाना
अजब शिकस्त का एहसास दिल पे छाया था
रोता हुआ बकरा
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है