शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है
तिरे हिज्र में ये पता चला मिरी उम्र कितनी दराज़ है
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ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा
वो कौन है जिस की वहशत पर सुनते हैं कि जंगल रोता है
न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है
तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए
उन से मिलते थे तो सब कहते थे क्यूँ मिलते हो
एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
कोई तो आ के रुला दे कि हँस रहा हूँ मैं
शब-ए-वा'दा कह गई है शब-ए-ग़म दराज़ रखना
उस का होना भी भरी बज़्म में है वज्ह-ए-सुकूँ
क्या क़यामत है कि इक शख़्स का हो भी न सकूँ
शिकन शिकन तिरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
छटा आदमी