इज़हार-ए-इश्क़ उस से न करना था 'शेफ़्ता'
ये क्या किया कि दोस्त को दुश्मन बना दिया
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मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम
गह हम से ख़फ़ा वो हैं गहे उन से ख़फ़ा हम
दिल लिया जिस ने बेवफ़ाई की
दस्त-ए-अदू से शब जो वो साग़र लिया किए
कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है
जब रक़ीबों का सितम याद आया
है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो
मैं वस्ल में भी 'शेफ़्ता' हसरत-तलब रहा
गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया
इतनी न बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत
दिल का गिला फ़लक की शिकायत यहाँ नहीं