कल जहाँ से कि उठा लाए थे अहबाब मुझे
ले चला आज वहीं फिर दिल-ए-बे-ताब मुझे
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नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे
मिरा घर तेरी मंज़िल गाह हो ऐसे कहाँ तालेअ'
देख छोटों को है अल्लाह बड़ाई देता
हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं
क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं
दूद-ए-दिल से है ये तारीकी मिरे ग़म-ख़ाना में
दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे
सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी