ख़ुद से फ़रार इतना आसान भी नहीं है
साए करेंगे पीछा कोई कहीं से निकले
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दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ
हैबत-ए-हुस्न से अल्फ़ाज़ की हैरानी तक
ये एक साया ग़नीमत है रोक लो वर्ना
तेरा चेहरा देख के हर शब सुब्ह दोबारा लिखती है
जो तसव्वुर में है उस को कोई क्या रौशन करे
तुम्हारे ख़्वाब लौटाने पे शर्मिंदा तो हैं लेकिन
टूटे हुए ख़्वाबों के तलबगार भी आए
किसी नादीदा शय की चाह में अक्सर बदलते हैं
मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं
अब्र का टुकड़ा कोई बाला-ए-बाम आता हुआ
इतना नूर कहाँ से लाऊँ तारीकी के इस जंगल में
सफ़र सराबों का बस आज कटने वाला है