ख़ुद को बचाऊँ जिस्म सँभालूँ कि रूह को
बिखरा हुआ है दर्द यहाँ से वहाँ तलक
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बेवफ़ाई का मुझे इल्ज़ाम देता था वो शख़्स
इतना न दूर जाओ कि जीना मुहाल हो
वो इतनी शिद्दतों से सोचता है
कहाँ तलक तिरी यादों से तख़लिया कर लें
तोड़े बग़ैर संग तराशे न जाएँगे
दिल में रह रह के शोर उठता है
कोई महबूब सितमगर भी तो हो सकता है
ज़िंदगी तुझ से प्यार क्या करते
दिल में तूफ़ान नहीं आँख में सैलाब नहीं
ज़मीं पे रहते हुए कहकशाँ से मिलते हैं
क्या हमसरी की हम से तमन्ना करे कोई
बिखरते टूटते लम्हों में ऐसा लगता है