किया ख़ाक आतिश-ए-इश्क़ ने दिल-ए-बे-नवा-ए-'सिराज' कूँ
न ख़तर रहा न हज़र रहा मगर एक बे-ख़तरी रही
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यार गर्म-ए-मेहरबानी हो गया
नहीं बख़्शी है कैफ़िय्यत नसीहत ख़ुश्क ज़ाहिद की
इश्क़ की जो लगन नहीं देखा
अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी
ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
मुझ सीं ग़म दस्त-ओ-गरेबाँ न हुआ था सो हुआ
था बहाना मुझे ज़ंजीर के हिल जाने का
हिज्र की आग में अज़ाब में न दे
मुस्तइद हूँ तिरे ज़ुल्फ़ों की सियाही ले कर
क्या बला का है नशा इश्क़ के पैमाने में
तुझ पर फ़िदा हैं सारे हुस्न-ओ-जमाल वाले