इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
बे-रहम अँधेरा है शमएँ हैं न परवाने
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काफ़िरी में भी जो चाहत होगी
बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया
अश्क-ए-हसरत में क्यूँ लहू है अभी
क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है
ज़र्ब-उल-मसल हैं अब मिरी मुश्किल-पसंदियाँ
यूँ सुबुक-दोश हूँ जीने का भी इल्ज़ाम नहीं
जलती रहना शम-ए-हयात
आँसू हैं कफ़न-पोश सितारे हैं कफ़न-रंग
तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
ग़ुस्ल-ए-तौबा के लिए भी नहीं मिलती है शराब
जो अश्क सुर्ख़ है नामा-निगार है दिल का