वो भीड़ है कि ढूँढना तेरा तो दरकिनार
ख़ुद खोया जा रहा हूँ हुजूम-ए-ख़याल में
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मिटा सा हर्फ़ हूँ बिगड़ी हुई सी बात हूँ मैं
आप के पाँव के नीचे दिल है
न मोहतसिब की ख़ुशामद न मय-कदे का तवाफ़
ये एक लड़ी के सब छिटके हुए मोती हैं
ख़ुशा वो दौर कि जब मरकज़-ए-निगाह थे हम
चंद तिनकों की सलीक़े से अगर तरतीब हो
कम-ज़र्फ़ की निय्यत क्या पिघला हुआ लोहा है
दुनिया का न उक़्बा का कोई ग़म नहीं सहते
गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ
दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा
तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम
क्यूँ ध्यान बटाती है मिरा गर्दिश-ए-दुनिया