कम-ज़र्फ़ की निय्यत क्या पिघला हुआ लोहा है
भर भर के छलकते हैं अक्सर यही पैमाने
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ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया
लहू में डूबी है तारीख़-ए-ख़िल्क़त-ए-इंसाँ
ख़ुशा वो दौर कि जब मरकज़-ए-निगाह थे हम
वो भीड़ है कि ढूँढना तेरा तो दरकिनार
तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम
हाँ तुम को भूल जाने की कोशिश करेंगे हम
क्यूँ ध्यान बटाती है मिरा गर्दिश-ए-दुनिया
हैरान हैं अब जाएँ कहाँ ढूँडने तुम को
यूँ सुबुक-दोश हूँ जीने का भी इल्ज़ाम नहीं
बड़ों-बड़ों के क़दम डगमगाए जाते हैं
क़दम तो रख मंज़िल-ए-वफ़ा में बिसात खोई हुई मिलेगी