ख़बर रिहाई की मिल चुकी है चराग़ फूलों के जल रहे हैं
मगर बड़ी तेज़ रौशनी है क़फ़स का दर सूझता नहीं है
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रात भर शम्अ' जलाता हूँ बुझाता हूँ 'सिराज'
इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
नज़्र-ए-ग़म शायद हर अश्क-ए-ख़ूँ-चकाँ करना पड़े
अच्छा क़िसास लेना फिर आह-ए-आतिशीं से
आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और
क्यूँ ध्यान बटाती है मिरा गर्दिश-ए-दुनिया
आँखों पर अपनी रख कर साहिल की आस्तीं को
दम घुटा जाता है मोहब्बत का
जो अश्क सुर्ख़ है नामा-निगार है दिल का
कैसे फाँदेगा बाग़ की दीवार
न कुरेदूँ इश्क़ के राज़ को मुझे एहतियात-ए-कलाम है
ये जब्र-ए-ज़िंदगी न उठाएँ तो क्या करें