कैसे फाँदेगा बाग़ की दीवार
तू गिरफ़्तार-ए-रंग-ओ-बू है अभी
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सज्दा-ए-इश्क़ पे तन्क़ीद न कर ऐ वाइ'ज़
काफ़िरी में भी जो चाहत होगी
न मोहतसिब की ख़ुशामद न मय-कदे का तवाफ़
लिया जन्नत में भी दोज़ख़ का सहारा हम ने
नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे
इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है
ज़रा देखो ये सरकश ज़र्रा-ए-ख़ाक
क़दम तो रख मंज़िल-ए-वफ़ा में बिसात खोई हुई मिलेगी
बड़ों-बड़ों के क़दम डगमगाए जाते हैं
हैरान हैं अब जाएँ कहाँ ढूँडने तुम को
बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया