नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे
कहाँ कहाँ किए सज्दे कहाँ क़याम किया
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दाम-बर-दोश फिरें चाहे वो गेसू बर-दोश
मिटा सा हर्फ़ हूँ बिगड़ी हुई सी बात हूँ मैं
दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा
दुनिया का न उक़्बा का कोई ग़म नहीं सहते
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
आँखों पर अपनी रख कर साहिल की आस्तीं को
बड़ों-बड़ों के क़दम डगमगाए जाते हैं
अभी रक्खा रहने दो ताक़ पर यूँही आफ़्ताब का आइना
क़दम तो रख मंज़िल-ए-वफ़ा में बिसात खोई हुई मिलेगी
न कुरेदूँ इश्क़ के राज़ को मुझे एहतियात-ए-कलाम है
हर नफ़्स उतनी ही लौ देगा 'सिराज'