अभी रक्खा रहने दो ताक़ पर यूँही आफ़्ताब का आइना
कि अभी तो मेरी निगाह में वही मेरा माह-ए-तमाम है
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ये वो आज़माइश-ए-सख़्त है कि बड़े बड़े भी निकल गए
कैसे फाँदेगा बाग़ की दीवार
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए
आँसू हैं कफ़न-पोश सितारे हैं कफ़न-रंग
इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है
यूँ सुबुक-दोश हूँ जीने का भी इल्ज़ाम नहीं
ये जज़्र-ओ-मद है पादाश-ए-अमल इक दिन यक़ीनी है
मुझे अब हवा-ए-चमन नहीं कि क़फ़स में गूना क़रार है
न मोहतसिब की ख़ुशामद न मय-कदे का तवाफ़