इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
उट्ठे तिरी महफ़िल से तो जाएँगे किधर हम
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हो गया आइना-ए-हाल भी गर्द-आलूदा
सोता रहा होंटों पे तबस्सुम का सवेरा
इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ
हर अश्क-ए-सुर्ख़ है दामान-ए-शब में आग का फूल
चमक शायद अभी गीती के ज़र्रों की नहीं देखी
क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है
अश्क-ए-हसरत में क्यूँ लहू है अभी
गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ
ये जब्र-ए-ज़िंदगी न उठाएँ तो क्या करें
आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और
ईमाँ की नुमाइश है सज्दे हैं कि अफ़्साने