हो गया आइना-ए-हाल भी गर्द-आलूदा
गोद में लाशा-ए-माज़ी को लिए बैठा हूँ
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इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ
जान सी शय की मुझे इश्क़ में कुछ क़द्र नहीं
नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे
आँसू हैं कफ़न-पोश सितारे हैं कफ़न-रंग
इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
मिला-दिला सही इक ख़ुश्क हार बाक़ी है
ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
आप के पाँव के नीचे दिल है
ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए
गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ