ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
उजाले में बरसती है सियाही
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वो भीड़ है कि ढूँढना तेरा तो दरकिनार
क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है
फ़ितरत-ए-इश्क़ गुनहगार हुई जाती है
इस दिल में तो ख़िज़ाँ की हवा तक नहीं लगी
ये जब्र-ए-ज़िंदगी न उठाएँ तो क्या करें
नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे
यौम-ए-आज़ादी
दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
वो ज़कात-ए-दौलत-ए-सब्र भी मिरे चंद अश्कों के नाम से
क्यूँ ध्यान बटाती है मिरा गर्दिश-ए-दुनिया
आँखों पर अपनी रख कर साहिल की आस्तीं को