ख़ुशा वो दौर कि जब मरकज़-ए-निगाह थे हम
पड़ा जो वक़्त तो अब कोई रू-शनास नहीं
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न कुरेदूँ इश्क़ के राज़ को मुझे एहतियात-ए-कलाम है
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
फिर भी पेशानी-ए-तूफ़ाँ पे शिकन बाक़ी है
बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया
तुझे पा के तुझ से जुदा हो गए हम
हैरान हैं अब जाएँ कहाँ ढूँडने तुम को
काफ़िरी में भी जो चाहत होगी
क़फ़स भी बिगड़ी हुई शक्ल है नशेमन की
गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ
ये आधी रात ये काफ़िर अंधेरा
दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा
ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए