ये जज़्र-ओ-मद है पादाश-ए-अमल इक दिन यक़ीनी है
न समझो ख़ून-ए-इंसाँ बह गया है राएगाँ हो कर
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ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
न कुरेदूँ इश्क़ के राज़ को मुझे एहतियात-ए-कलाम है
इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ
मुझे अब हवा-ए-चमन नहीं कि क़फ़स में गूना क़रार है
ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए
ख़बर रिहाई की मिल चुकी है चराग़ फूलों के जल रहे हैं
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
ज़रा देखो ये सरकश ज़र्रा-ए-ख़ाक
वो ज़कात-ए-दौलत-ए-सब्र भी मिरे चंद अश्कों के नाम से
ये वो आज़माइश-ए-सख़्त है कि बड़े बड़े भी निकल गए
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
ये ज़मीं ख़ुद हो जन्नतों का सुहाग