ये एक लड़ी के सब छिटके हुए मोती हैं
का'बे ही की शाख़ें हैं बिखरे हुए बुत-ख़ाने
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फ़ितरत-ए-इश्क़ गुनहगार हुई जाती है
मुझे अब हवा-ए-चमन नहीं कि क़फ़स में गूना क़रार है
न कुरेदूँ इश्क़ के राज़ को मुझे एहतियात-ए-कलाम है
ग़ुस्ल-ए-तौबा के लिए भी नहीं मिलती है शराब
कम-ज़र्फ़ की निय्यत क्या पिघला हुआ लोहा है
वो ज़कात-ए-दौलत-ए-सब्र भी मिरे चंद अश्कों के नाम से
ख़याल-ए-दोस्त न मैं याद-ए-यार में गुम हूँ
इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
सोता रहा होंटों पे तबस्सुम का सवेरा
न पी सको तो इधर आओ पोंछ दूँ आँसू
अजब सूरत से दिल घबरा रहा है
ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए