दाम-बर-दोश फिरें चाहे वो गेसू बर-दोश
सैद बन बन के हमीं ने उन्हें सय्याद किया
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क़दम तो रख मंज़िल-ए-वफ़ा में बिसात खोई हुई मिलेगी
नमाज़-ए-इश्क़ पढ़ी तो मगर ये होश किसे
ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
आप के पाँव के नीचे दिल है
क़फ़स भी बिगड़ी हुई शक्ल है नशेमन की
मिला-दिला सही इक ख़ुश्क हार बाक़ी है
ये जज़्र-ओ-मद है पादाश-ए-अमल इक दिन यक़ीनी है
बड़ों-बड़ों के क़दम डगमगाए जाते हैं
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
हो गया आइना-ए-हाल भी गर्द-आलूदा
ये जब्र-ए-ज़िंदगी न उठाएँ तो क्या करें
दुनिया का न उक़्बा का कोई ग़म नहीं सहते