रात भर शम्अ' जलाता हूँ बुझाता हूँ 'सिराज'
बैठे बैठे यही शग़्ल-ए-शब-ए-तन्हाई है
Ahmad Faraz
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ज़र्ब-उल-मसल हैं अब मिरी मुश्किल-पसंदियाँ
ये ज़मीं ख़ुद हो जन्नतों का सुहाग
इस सोच में बैठे हैं झुकाए हुए सर हम
दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा
हाँ तुम को भूल जाने की कोशिश करेंगे हम
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
आँखें खुलीं तो जाग उठीं हसरतें तमाम
एक एक से भीक आँसुओं की माँग रहा हूँ
ये आधी रात ये काफ़िर अंधेरा
ये जब्र-ए-ज़िंदगी न उठाएँ तो क्या करें
इश्क़ का बंदा भी हूँ काफ़िर भी हूँ मोमिन भी हूँ
क़फ़स भी बिगड़ी हुई शक्ल है नशेमन की