नुमूद उन की भी दौर-ए-सुबू में थी कल रात
अभी जो दौर-ए-तह-ए-आसमाँ नहीं गुज़रे
Wasi Shah
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हुजूम-ए-गुल में रहे हम हज़ार दस्त दराज़
दिन को बहर-ओ-बर का सीना चीर कर रख दीजिए
मैं ने कहा कि तजज़िया-ए-जिस्म-ओ-जाँ करो
शौक़ रातों को है दरपय कि तपाँ हो जाऊँ
यारब सराब-ए-अहल-ए-हवस से नजात दे
ऐ दोस्त इस ज़मान-ओ-मकाँ के अज़ाब में
उठो ज़माने के आशोब का इज़ाला करें
मौसम-ए-गुल तिरे इनआ'म अभी बाक़ी हैं
शायद रुख़-ए-हयात से सरके नक़ाब और
ऐ अहल-ए-नज़र सोज़ हमीं साज़ हमीं हैं
इस्लाह-ए-अहल-ए-होश का यारा नहीं हमें