तेरी आँखों में हम ने क्या देखा
कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा
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मिरी ज़बाँ से मिरी दास्ताँ सुनो तो सही
दिल के दीवार-ओ-दर पे क्या देखा
पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं
शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है
ज़िंदगी तुझ को जिया है कोई अफ़्सोस नहीं
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
दुनिया से वफ़ा कर के सिला ढूँढ रहे हैं
हम से पूछो न दोस्ती का सिला
इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े
अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें