हम हार तो जाते ही कि दुश्मन के हमारे
सौ पैर थे सौ हाथ थे इक सर ही नहीं था
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पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है
दो पाँव हैं जो हार के रुक जाते हैं
सफ़र में अब भी आदतन सराब देखता हूँ मैं
जाँ तन का साथ दे न तो दिल ही वफ़ा करे
कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
मैं क्या करूँ कोई सब मेरे इख़्तियार में है
फ़क़ीह-ए-शहर से रिश्ता बनाए रहता हूँ
हम ने तो मूँद लीं आँखें ही तिरी दीद के बाद
देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर
तमन्ना दिल में घर करती बहुत है
गए मौसमों को भुला देंगे हम