पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है
लब पे है नाम-ए-ख़ुदा दिल में यक़ीं कितना है
Jaun Eliya
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सफ़र में अब भी आदतन सराब देखता हूँ मैं
आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था
इम्कान खुले दर का हर आन बहुत रक्खा
मैं खो गया तो शहर-ए-फ़न में दस्तियाब हो गया
उजड़े दिल-ओ-दिमाग़ को आबाद कर सकूँ
देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर
गए मौसमों को भुला देंगे हम
सब तमाशे हो चुके अब घर चलो
सफ़र करो तो इक आलम दिखाई देता है
हम हार तो जाते ही कि दुश्मन के हमारे
जब शाम बढ़ी रात का चाक़ू निकल आया