हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना
आज़ाद लोग भी तो गिरफ़्तार से रहे
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कुछ दफ़्न है और साँस लिए जाता है
फ़क़ीह-ए-शहर से रिश्ता बनाए रहता हूँ
सफ़र में अब भी आदतन सराब देखता हूँ मैं
दो पाँव हैं जो हार के रुक जाते हैं
ख़ैर उस से न सही ख़ुद से वफ़ा कर डालो
तमन्ना दिल में घर करती बहुत है
हम ने तो मूँद लीं आँखें ही तिरी दीद के बाद
कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
जैसा हमें गुमान था वैसा नहीं रहा
दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे
साए के लिए है न ठिकाने के लिए है