इक मौज-ए-फ़ना थी जो रोके न रुकी आख़िर
दीवार बहुत खींची दरबान बहुत रक्खा
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हम हार तो जाते ही कि दुश्मन के हमारे
दो पाँव हैं जो हार के रुक जाते हैं
दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे
तमन्ना दिल में घर करती बहुत है
गए मौसमों को भुला देंगे हम
कुछ दफ़्न है और साँस लिए जाता है
देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर
जब शाम बढ़ी रात का चाक़ू निकल आया
हम ने तो मूँद लीं आँखें ही तिरी दीद के बाद
सफ़र करो तो इक आलम दिखाई देता है
आँखों को मयस्सर कोई मंज़र ही नहीं था
साए के लिए है न ठिकाने के लिए है