दो पाँव हैं जो हार के रुक जाते हैं
इक सर है जो दीवार से टकराता है
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जब शाम बढ़ी रात का चाक़ू निकल आया
ख़ैर उस से न सही ख़ुद से वफ़ा कर डालो
कभी तो लगता है गुमराह कर गई मुझ को
इक मौज-ए-फ़ना थी जो रोके न रुकी आख़िर
सब तमाशे हो चुके अब घर चलो
हम ने तो मूँद लीं आँखें ही तिरी दीद के बाद
दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे
कुछ दफ़्न है और साँस लिए जाता है
देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर
हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना
पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है
नवाह-ए-जाँ में कहीं अबतरी सी लगती है