इस क़दर ग़ौर से देखा है सरापा उस का
याद आता ही नहीं अब मुझे चेहरा उस का
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मैं एक आँसू इकट्ठा कर रहा हूँ
बदन को वज्द तिरे बे-हिसाब-ओ-हद आए
ख़ुदा हुआ न कोई और ही गवाह हुआ
जो हो सका नहीं दरपेश उसे बनाता हुआ
हर एक चीज़ मयस्सर सिवाए बोसा है
बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा
मंसब-ए-इश्क़ से कुछ ओहदा-बरा मैं ही हुआ
मेरी उम्र में बहुत से वक़्त नहीं आए
तू मुझ को चाहता है इस मुग़ालते में रहूँ
कभी कभी मुझे लगता है वो नहीं है वो
आज़ादी का महल्ल-ए-वक़ूअ'-1
उस पर निगाह फिरती रही और दूर दूर