ज़िंदगानी का खुला-पन अद्ल से मशरूत है
शहर क्या है जेल-ख़ाने में अगर आबाद है
अद्ल तस्ख़ीरात-ए-अहकामात की बुनियाद है
मुल्क वो आज़ाद जिस की अदलिया आज़ाद है
Gulzar
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जुनूँ पे जब्र-ए-ख़िरद जब भी होश्यार हुआ
जब्र ओ जहालत
उधार
बद-नामी के ब'अद
तन-आसानी नहीं जाती रिया-कारी नहीं जाती
हज़रत-ए-इक़बाल का शाहीं तो हम से उड़ चुका
ख़राबी
तजर्बात-ए-तल्ख़ ने हर-चंद समझाया मुझे
पुरानी मोटर
अपने ज़र्फ़ अपनी तलब अपनी नज़र की बात है
हम ज़माने से फ़क़त हुस्न-ए-गुमाँ रखते हैं
अगर हम दश्त-ए-जुनूँ में न ग़ज़ल-ख़्वाँ होते