अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
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छोटी पड़ती है अना की चादर
अज़ाब टूटे दिलों को हर इक नफ़स गुज़रा
'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक
एक जल्वा ब-सद अंदाज़-ए-नज़र देख लिया
आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है
मंज़िलों को नज़र में रक्खा है
शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे
धूमें मचाएँ सब्ज़ा रौंदें फूलों को पामाल करें
टूट कर अहद-ए-तमन्ना की तरह
शर्मिंदा हम जुनूँ से हैं एक एक तार के
मह-ओ-पर्वीं तह-ए-कमंद रहे