छोटी पड़ती है अना की चादर
पाँव ढकता हूँ तो सर खुलता है
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अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
बहुत जबीन-ओ-रुख़-ओ-लब बहुत क़द-ओ-गेसू
आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है
बंद-ए-ग़म मुश्किल से मुश्किल-तर खुला
यूँ नक़ाब-ए-रुख़ मुक़ाबिल से उठी
टूट कर अहद-ए-तमन्ना की तरह
अज़ाब टूटे दिलों को हर इक नफ़स गुज़रा
सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे
नफ़स की ज़द पे हर इक शोला-ए-तमन्ना है
'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक