नफ़स की ज़द पे हर इक शोला-ए-तमन्ना है
हवा के सामने किस का चराग़ जलता है
तिरा विसाल तो किस को नसीब है लेकिन
तिरे फ़िराक़ का आलम भी किस ने देखा है
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
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शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
टूट कर अहद-ए-तमन्ना की तरह
यूँ नक़ाब-ए-रुख़ मुक़ाबिल से उठी
आईना जब भी रू-ब-रू आया
हमा-तन गोश इक ज़माना था
आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है
देखिए अहल-ए-मोहब्बत हमें क्या देते हैं
शर्मिंदा हम जुनूँ से हैं एक एक तार के
ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
पाबंदी-ए-हुदूद से बेगाना चाहिए