मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
एक सहरा है मुब्तला मुझ में
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इक वहशत सी दर आई है आँखों में
मैं उस की मोहब्बत से इक दिन भी मुकर जाता
इक अनोखी रस्म को ज़िंदा रखा है
बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
हर्फ़
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
बढ़ रहा हूँ ख़याल से आगे
ये जो माज़ी की बात करते हैं
मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
ख़्वाहिशों की बादशाही कुछ नहीं