उसे छुआ ही नहीं जो मिरी किताब में था
वही पढ़ाया गया मुझ को जो निसाब में था
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हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
में अदम की पनाह-गाह में हूँ
ज़र्रों की बातों में आने वाला था
एक बरस और बीत गया
रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
अब रवानी से है नजात मुझे
न हम-सफ़र है न हम-नवा है
एक किरन फिर मुझ को वापस खींच गई
कोई उस के बराबर हो गया है
जिन का सूझा न कुछ जवाब हमें