हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
वो इक दीवार पूरी हो गई है
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अब रवानी से है नजात मुझे
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
दश्त की ख़ाक भी छानी है
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
हवा के वार पे अब वार करने वाला है
मुसाफ़िरों के लिए साज़गार थोड़ी है
एक बरस और बीत गया
देखना चाहता हूँ गुम हो कर
जिन का सूझा न कुछ जवाब हमें
फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है