घर में वही पीली तन्हाई रहती है
दीवारों के रंग बदलते रहते हैं
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क़ाफ़िले से अलग चले हम लोग
इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
रात की ग़ार में उतरने का
दाग़ होने लगे ज़ाहिर मेरे
देखना चाहता हूँ गुम हो कर
यहाँ तक कर लिया मसरूफ़ ख़ुद को
कई सम्तों में रस्ता बट रहा है
फिर वही शब वही सितारा है
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
मंज़िलों से भी आगे निकलता हुआ
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे