यहाँ तक कर लिया मसरूफ़ ख़ुद को
अकेली हो गई तन्हाई मेरी
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रोज़ ये ख़्वाब डराता हैं मुझे
एक बरस और बीत गया
अब रवानी से है नजात मुझे
ये सदा काश उसी ने दी हो
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
ज़रा लौ चराग़ की कम करो मिरा दुख है फिर से उतार पर
कौन तहलील हुआ है मुझ में
दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम
बारिश में अक्सर ऐसा हो जाता है
देखना चाहता हूँ गुम हो कर
जुनूँ की पैरवी से ख़ुश नहीं हूँ