ये सदा काश उसी ने दी हो
इस तरह वो ही बुलाता है मुझे
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ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
सब के आगे नहीं बिखरना है
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
तन्हा होता हूँ तो मर जाता हूँ मैं
कोई उस के बराबर हो गया है
मुसाफ़िरों के लिए साज़गार थोड़ी है
मुझ को अक्सर उदास करती है
मिरी उरूज की लिक्खी थी दास्ताँ जिस में
हाँ वफ़ाओं का मेरी ध्यान भी था
जिन का सूझा न कुछ जवाब हमें
लफ़्ज़ की क़ैद-ओ-रिहाई का हुनर
में अदम की पनाह-गाह में हूँ