ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
ख़्वाहिश-ए-मर्ग सर उठाती हुई
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रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
कोई उस के बराबर हो गया है
बला का हब्स था पर नींद टूटती ही न थी
कई सम्तों में रस्ता बट रहा है
दश्त की ख़ाक भी छानी है
मुझ को अक्सर उदास करती है
रोज़ ये ख़्वाब डराता हैं मुझे
सब के आगे नहीं बिखरना है
घर में वही पीली तन्हाई रहती है
हवा बहने लगी मुझ में
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र