बला का हब्स था पर नींद टूटती ही न थी
न कोई दर न दरीचा फ़सील-ए-ख़्वाब में था
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दाग़ होने लगे ज़ाहिर मेरे
ये सदा काश उसी ने दी हो
मुझ को अक्सर उदास करती है
तू भी नाराज़ बहुत है मुझ से
में अदम की पनाह-गाह में हूँ
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
देखना चाहता हूँ गुम हो कर
यहाँ तक कर लिया मसरूफ़ ख़ुद को
जिन का सूझा न कुछ जवाब हमें
वो निहत्ता नहीं अकेला है
एक किरन फिर मुझ को वापस खींच गई
घर में वही पीली तन्हाई रहती है