देखना चाहता हूँ गुम हो कर
क्या कोई ढूँड के लाता है मुझे
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अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
सब के आगे नहीं बिखरना है
रात की ग़ार में उतरने का
हाँ वफ़ाओं का मेरी ध्यान भी था
उसे छुआ ही नहीं जो मिरी किताब में था
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
क़ाफ़िले से अलग चले हम लोग
ये सदा काश उसी ने दी हो
मंज़िलों से भी आगे निकलता हुआ
जुनूँ की पैरवी से ख़ुश नहीं हूँ
ज़र्रों की बातों में आने वाला था