जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
बहुत सस्ता ये ज़ेवर वो गया है
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असर है ये हमारी दस्तकों का
दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम
इरादा तो नहीं है ख़ुद-कुशी का
हवा के साथ यारी हो गई है
ज़रा लौ चराग़ की कम करो मिरा दुख है फिर से उतार पर
देखना चाहता हूँ गुम हो कर
लफ़्ज़ की क़ैद-ओ-रिहाई का हुनर
हाँ वफ़ाओं का मेरी ध्यान भी था
मुझ को अक्सर उदास करती है
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
मोहब्बत के आदाब सीखो ज़रा
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे