लफ़्ज़ की क़ैद-ओ-रिहाई का हुनर
काम आ ही गया आख़िर मेरे
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फिर वही शब वही सितारा है
मुद्दतें हो गईं हिसाब किए
कौन तहलील हुआ है मुझ में
इरादा तो नहीं है ख़ुद-कुशी का
एक बरस और बीत गया
दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम
उसे छुआ ही नहीं जो मिरी किताब में था
कई सम्तों में रस्ता बट रहा है
असर है ये हमारी दस्तकों का
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
में अदम की पनाह-गाह में हूँ