मुद्दतें हो गईं हिसाब किए
क्या पता कितने रह गए हैं हम
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ज़रा लौ चराग़ की कम करो मिरा दुख है फिर से उतार पर
कोई उस के बराबर हो गया है
इरादा तो नहीं है ख़ुद-कुशी का
देखना चाहता हूँ गुम हो कर
न हम-सफ़र है न हम-नवा है
फिर वही शब वही सितारा है
लफ़्ज़ की क़ैद-ओ-रिहाई का हुनर
मुझ को अक्सर उदास करती है
हाथ पर हाथ रख के क्यूँ बैठूँ
तन्हा होता हूँ तो मर जाता हूँ मैं
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र