दश्त की ख़ाक भी छानी है
घर सी कहाँ वीरानी है
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अब रवानी से है नजात मुझे
में अदम की पनाह-गाह में हूँ
बारिश में अक्सर ऐसा हो जाता है
इरादा तो नहीं है ख़ुद-कुशी का
इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
ज़रा लौ चराग़ की कम करो मिरा दुख है फिर से उतार पर
न हम-सफ़र है न हम-नवा है
हाथ पर हाथ रख के क्यूँ बैठूँ
कई सम्तों में रस्ता बट रहा है
जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम