रात की ग़ार में उतरने का
आ गया वक़्त फिर बिखरने का
उस की रफ़्तार से तो लगता है
वो कहीं भी नहीं ठहरने का
नींद टूटी तो मुझ को चैन पड़ा
ख़्वाब देखा था अपने मरने का
तन से पत्थर बंधे हुए हैं मिरे
मैं नहीं सत्ह पर उभरने का
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हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
इरादा तो नहीं है ख़ुद-कुशी का
इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
न हम-सफ़र है न हम-नवा है
फ़िक्र का कारोबार था मुझ में
हाथ पर हाथ रख के क्यूँ बैठूँ
तन्हा होता हूँ तो मर जाता हूँ मैं
रात भर बर्फ़ गिरती रही है
फ़सील-ए-शब पे तारों ने लिखा क्या
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
मिरी उरूज की लिक्खी थी दास्ताँ जिस में