फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
मैं समझा था रिहाई हो गई है
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वो निहत्ता नहीं अकेला है
सर-ए-अफ़्लाक बिछा चाहती है
मैं तो किसी जुलूस में गया नहीं
हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
हवा के साथ यारी हो गई है
फ़िक्र का कारोबार था मुझ में
तू भी नाराज़ बहुत है मुझ से
मुझ को अक्सर उदास करती है
दाग़ होने लगे ज़ाहिर मेरे
दिल-खंडर में खड़े हुए हैं हम
घर में वही पीली तन्हाई रहती है